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मंगलवार, 31 दिसंबर 2019

पलायन का वर्ष

31 दिसंबर 2018। दुनिया नए साल के स्वागत की तैयारी कर रही थी, मैं अम्मा(दादी) की अस्थियों को गंगा में विसर्जित करने वाराणसी जा रहा था, भवानी चाचा के साथ। साल बीत रहा था, साथ ही अम्मा की स्मृतियां भी।



रात के 12 बजे ट्रेन में हैप्पी न्यू ईयर बोल रहे थे लोग लेकिन मेरे लिए कुछ अच्छा नहीं था। जिसने ख़ुद से हमें कभी कभी अलग नहीं किया, जिसका होने हमारे लिए भगवान के होने से कहीं ज्यादा ज़रूरी था, उसका मंदिर ही ख़त्म हो चुका था। राख बची थी। स्वार्थी होने का मन कर रहा था उस वक़्त। मन कर रहा था कि अम्मा को हमेशा ही ऐसे ही रहने दूं। नहीं रख सकता था। ये मिस्र नहीं, भारत है।

पूरे साल एक गहरा अवसाद रहा लेकिन हंसने से भी परहेज़ नहीं रहा। इस साल शेखर के जाने के कुछ दिनों बाद ही अम्मा भी चली गई। कई बार विश्वास नहीं होता है कि कोई गया है।

लगता है कि शेखर अचानक से कूदकर बोलेगा, 'भइया का सोचत हो?'...और..अम्मा बोल देगी 'ललनवा।'
दोनों अब कुछ नहीं बोलेंगे, ख़ुद को हर बार पूरे साल तसल्ली देते रहे.

अम्मा जब कभी सपने में दिखती है, मानने का मन ही नहीं करता है कि अब नहीं है. ऐसा लगता है, अम्मा अब बुलाएगी. कुछ कहेगी. बहुत अफनाहट होती है, अचानक से कभी कभी.

उस वक़्त लगता है अम्मा है, मेरे आस पास ही। सब ठीक है, तभी कुछ ठक से लग जाता है। एहसास होता है सपना था। अम्मा तो वह थी जो धुआं बनकर उड़ गई। हमारी आंखों के सामने ही। 24 दिसंबर को।

इंसान होने में तक़लीफ़ बहुत है। समझ होती है। सपने को सच नहीं मान सकते। सच को सपना। मन कहता है कि सब सपना था, नींद टूटते ही जो बुरा सपना हमने देखा था, टूट जाएगा। कुछ टूटता नहीं लेकिन भीतर ही भीतर बहुत कुछ टूट रहा होता है।

शेखर विलक्षण प्रतिभा का धनी था, उतना ही प्यारा। ईश्वर के प्रति अगाध समर्पण। दुनिया के तौर-तरीक़ों से अछूता, सच में किसी ऋषि-मुनि की तरह। ईश्वर ने उसे हमारे पास रहने ही नहीं दिया। 20 की उम्र में पलायन। ऐसा गया कि लौटने की सारी संभावनाएं ख़त्म हो गईं।

और अम्मा!

सुबह उठकर सबसे पहला काम अम्मा को फ़ोन करना होता था। हर 2 घंटे में एक बार। अम्मा थी तो बातें थीं, अब अम्मा नहीं है तो बातें ख़त्म हो गई हैं।

आज भी कई बार हूक सी उठती है अम्मा को फ़ोन करना है..फ़ोन पर नज़र जाती है और....

अम्मा की गोदी, अब महसूस भी नहीं कर पाता….अब ख़ुद को बच्चा भी नहीं मान पाता..अब लगने लगा है बहुत बड़ा हो गया हो गया हूं मैं..बहुत ज़्यादा।

कई लोग चले गए। अजीब ही साल था। नाना अप्रैल में चले गए। नाना अब बच्चे हो गए थे। पहले वाले नाना से डर लगता था, नानी के जाने के बाद नाना मासूम हो गए थे। प्यार आता था। एक ही बात दस बार पूछते, फिर भूल जाते..अब नाना भी नहीं हैं।

बड़की मौसी भी अब नहीं है। जुलाई में मौसी की तबीयत बिगड़ी, फिर कुछ दिन कोमा में रही, एक दिन ख़बर आई मौसी अब नहीं है...मैं उन ख़ुशनसीब लोगों में एक था जो दौड़कर अपने मौसी के पास जा सकते हैं...अब अम्मा की तरह मौसी भी जा चुकी है।

जुलाई में ही पाले काका भी चले गए......किसी को नहीं जाना था। रुकना था..ऐसी भी क्या जल्दी थी जाने की। दुनिया इतनी बुरी भी जगह नहीं है जहां रहा न जा सके।

काश, कोई ऐसी युक्ति होती जिससे जो गए हैं, उन्हें लौटा लाते। वैसे ही जैसे सावित्री ने यम से सत्यवान को छीन लिया था... या जैसे कृष्ण अपने भाइयों को लौटा लाए थे....।

अच्छा ज़माना था जब स्वर्ग तक इंसानों का आना-जाना था। अब कोई चुपके से आता है, उठा ले जाता है।

यह साल, सच में पलायन का साल था।

शुक्रवार, 6 दिसंबर 2019

उद्योग बनते क्यों नज़र आ रहे हैं सरकारी शैक्षणिक संस्थान?


भारत विश्वगुरु था. भारत को विश्व गुरु एक बार फिर से बनाना है. मगर कैसे...इसका जवाब शायद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उनकी कैबिनेट और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के पास भी नहीं है. मोदी सरकार के त्रिमूर्तियों के बयान सुनिए, उनके बयानों से लगता है कि अगले 5 साल में ही भारत विश्व गुरु बनने वाला है या बन चुका है लेकिन हर बार बनते-बनते रह जाता है. लगता है कि विश्वगुरु बनाने की मंशा, सरकार बनाने के चक्कर में कहीं गुम हो गई है.

ऐसा भी हो सकता है कि इस विषय पर ध्यान ही न गया हो क्योंकि यहां साध्य को पूरा करने के लिए युक्ति ज़रूरी नहीं, कथन ज़रूरी है. पूर्ववर्ती सरकारें भी भारत को विश्व गुरु बना रही थीं, उनका ध्यान भी युक्ति पर नहीं कथन पर केंद्रित रहा.

अगर ध्यान गया होता तो अतीत का विश्वगुरु, भविष्य संवारने के लिए शिक्षा पर ध्यान देता क्योंकि गुरु जैसी किसी संस्था को अस्तित्व में लाना है तो उसके लिए कुछ अपरिहार्य है तो वह है शिक्षा. सस्ती शिक्षा. जिसमें सबकी बराबर की भागीदारी हो; अमीर-ग़रीब सबकी.

सड़क के किनारे बैठकर भुट्टा बेचने वाली औरत या गले में काला बैग और सिर पर लाल पगड़ी बांध दूसरों के कानों से खूंट निकालने वाला आदमी, सबकी हसरत होती है कि अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाएं. रिक्शावान, मजदूर, थवई, रेहड़ी-पटरीदार, मछुआरा, ठेले वाला, सफाई कर्मचारी...हर कोई, चाहता है कि जिस ज़िन्दगी से वे जूझ रहे हैं, उनके बच्चे उससे बाहर निकल सकें.

उनके बच्चों को भी IIT, IIM, MBBS, NEET, NLU, ICAI, IIMC और तमाम विश्वविद्यालयों में पढ़ने का मौका मिले. हर उस जगह जहां वे जाना चाहते हैं. जिस तरह से सरकारी संस्थानों की फ़ीस बढ़ाई जा रही है, उस हिसाब से लगता है कि गरीबों के बच्चे पढ़ नहीं सकेंगे.

जेएनयू के छात्र हाल ही में फ़ीस वृद्धि को लेकर सड़क पर उतरे थे. उनका प्रदर्शन अब भी जारी है, विश्वविद्यालय परिसर में. उत्तराखंड में आयुर्वेद की पढ़ाई करने वाले छात्र बढ़ी फ़ीस के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे हैं.

अब भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC) के छात्र प्रदर्शन कर रहे हैं बढ़ी हुई फ़ीस को लेकर. यहां से पत्रकारिता की पढ़ाई होती है. IIMC सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत आने वाला एक स्वायत्त संस्थान है. सरकारी संस्थान है. मगर फ़ीस प्राइवेट संस्थानों के टक्कर की है. क्यों है, इसका जवाब वहां के डीजी को पता है जो बहुत मासूमियत से धरने पर बैठे छात्रों को बता देंगे. वजहें भी गिना देंगे.

उम्मीद करते हैं कि इन बच्चों पर उस तरह से लाठियां नहीं बरसाई जाएंगी, जैसी सुविधाएं जेएनयू वालों की को दी गईं.

सरकारी संस्थान धन के दोहन के संयत्र बनते नज़र आ रहे हैं. सरकारी विद्यालयों की फ़ीस जितनी मंहगी होगी, गरीब तबक़ा उतना ग़रीब होता जाएगा.

 जब मैंने यहां से पढ़ाई की थी(2016-17) तब हिंदी-अंग्रेज़ी पत्रकारिता की फ़ीस 66,000 रुपये, आरटीवी की फ़ीस 1,20,000 रुपये और ADPR की फ़ीस 93,500 रुपये थी.

इस बार 2019-2020 की फ़ीस कुछ उसी अंदाज में बढ़ी है, जैसे जय शाह और रॉबर्ट वाड्रा की संपत्ति बढ़ी है. हिंदी और अंग्रेज़ी पत्रकारिता के छात्रों की फ़ीस 95,500 रुपये, RTV की 1,68,500 रुपये और ADPR के छात्रों की फ़ीस इस बरस 1,31,500 रुपये बढ़कर हो गई है.

सांसदों, विधायकों और जनप्रतिनिधियों की आमदनी जिस रफ़्तार से बढ़ती है, उतनी रफ़्तार से आम आदमी की नहीं बढ़ती. सिक्योरिटी गार्ड की सैलरी आज भी उतनी ही है जितनी 2009 में थी. दशक खत्म होने वाला है, महंगाई ने आसमान छू लिया है, आम जनता की आमदनी नहीं बढ़ी है. न ही बढ़ीं हैं रोजगार की संभावनाएं.

मैंने इससे पहले जिस-जिस पेशे के लोगों का जिक्र किया है, उनमें से कितने लोग अपने बच्चों को चाहकर भी यहां भेज सकते हैं? दिल्ली में किसी को टिकने के लिए कम से कम 8 हजार रुपये की जरूरत पड़ेगी. अगर हॉस्टल मिल गया तो भी इतने में गुजारा होना मुश्किल है. हॉस्टल की फ़ीस करीब 5,200 रुपये है. सबसे सस्ते कोर्स  हिंदी, अंग्रेज़ी या उर्दू पत्रकारिता में भी एडमिशन लिया है तो भी कोर्स पूरा होने तक दिल्ली में ठहरने का बजट 1,60,000 से ज़्यादा ही बैठेगा. बाकी कोर्स वाले तो 2 लाख तक खिंच जाएंगे.

9 महीने की पत्रकारिता की पढ़ाई इतनी महंगी है तो IIT, IIM, NLU और मेडिकल संस्थानों की फ़ीस कितनी होती होगी? कैसे सुनियोजित तरीके से बढ़ाई गई होगी. इन संस्थानों में पढ़ने का हक सबको है, पर मिलता किसको है?

पैसे वाले तो कहीं से भी पढ़ सकते हैं. जिस हिसाब से उनकी परवरिश होती है, उन्हें परीक्षाएं निकालने में बहुत मुश्किलें नहीं आती होंगी. जिन्हें आती होंगी, उनका मन कुछ और करता होगा. उनके पास प्राइवेट और महंगे विश्वविद्यालयों में पढ़ने का बजट है. आम आदमी के पास रास्ता क्या है? किडनी बेच कर पढ़ाए क्या बच्चों को? प्राइवेट में तो किडनी भी बेचकर एडमिशन न हो पाए.

देशभर में कहीं से भी सस्ती शिक्षा के लिए बच्चे आंदोलन करें तो उनका साथ दीजिए. सरकारी संस्थानों की महंगी फ़ीस, ग़रीबों के बच्चों को अशिक्षा के मुहाने पर ले जाकर छोड़ देगी. पढ़ने का सपना टूटेगा तो पीढ़ियां बर्बाद होंगी. फिर वे आज कल के टीवी ऐंकरों की तरह हिंदू-मुसलमान में ही उलझे रहेंगे. दंगाई बनेंगे. बनाएंगे भी. किसी को हिंदू खतरे में नज़र आएगा, किसी को इस्लाम. भविष्य तो ख़तरे में पड़ेगा ही.

अगर बच्चे पढ़ेंगे नहीं तो विश्व गुरु कैसे बनेंगे. हिंदुत्व, जम्मू-कश्मीर, राम मंदिर, एनआरसी, सीएबी के शोर-शराबे में शिक्षा दब गई है भाई. अमीर तो कहीं से पढ़ लेंगे, ग़रीब कहां जाएगें? जिसके लिए पेट भरना भी मुश्किल हो वो लोन लेकर पढ़ेगा कहां से? लोन अप्रूव कौन करेगा? भूमिहीनों को कौन सा लोन मिलता है? मिल भी गया तो नौकरी की संभावना क्या है? भरेगा कहां से?

IIMC के छात्रों की मांग है कि अगर दूसरे सेमेस्टर में फ़ीस नहीं घटाई गई तो कइयों को आधे सेमेस्टर में दिल्ली छोड़कर जाना पड़ेगा. हर किसी की आर्थिक स्थिति इस लायक भी नहीं होती कि उसे कर्ज़ मिल सके. छात्रों के भविष्य का मामला है और उन सब के लिए जो सपने देखते हैं. ग़रीब...किसान...थवई...ठेले वाला....सब...

समाज में समानता सदियों से गौण थी लेकिन एक जगह तो कम से कम हम समानता ला सकते हैं. शिक्षा में. फ़ीस महंगी न हो. स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी में सस्ती शिक्षा मिले. सबको शिक्षा मिले. कोई सिर्फ इसलिए न पढ़ पाए कि उसके मां-बाप के पास पैसे नहीं है. पढ़ाई उसके लिए भी सुलभ हो, जिसके मां-बाप न हों...लावारिस हो...सड़क पर रहता हो...बेघर हो.

हां, अमीरों को या मध्यम वर्ग जिसके पास बेहद पैसा है, उन्हें भी विरोध करना चाहिए. क्या पता अमीरी हमेशा न रहे. होता है, कई अरबपति भी रोडपति बनते हैं. शिक्षा सस्ती होगी तो अच्छे और बुरे दोनों दिनों में बच्चों के पढ़ने का भरोसा बना रहेगा.

क्योंकि कोई शायर हैं तुफैल...याद रखने वाली बात कही है-
समय के एक तमाचे की देर है प्यारे,
मेरी फ़क़ीरी भी क्या, तेरी बादशाही क्या?

इस बार भावी पत्रकार धरने पर बैठे हैं. आज का वक़्त ऐसा है कि आप कह सकते हैं कि जो कुछ अच्छा है, पत्रकारों की वजह से अच्छा है, जो बुरा है वह भी पत्रकारों की वजह से है. देश की राजनीति में एक बड़ा हिस्सा पत्रकारिता का बनाया या बिगाड़ा हुआ होता है. यहां से कुछ अच्छे पत्रकार निकले हैं, भविष्य में भी निकलेंगे अगर वे अपनी फ़ीस भर ले गए तो.

विश्व गुरु-विश्व गुरु का जाप बचपन से सुनते आए हैं. पीएम नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह, रक्षा मंत्री अमित शाह, परिवहन मंत्री नितिन गडकरी, संघ प्रमुख मोहन भागवत....सबके बयान देखिए..पढ़िए...सबको भारत को विश्व गुरु के स्थान पर स्थापित करना है.

गुरु का गुरुकुल होता है. जहां सबके लिए शिक्षा का समान अवसर उपलब्ध होता है. सबको समान शिक्षा मिलती है. जहां गुरु, गुरु होता है, व्यापारी नहीं. गुरुकुल भी गुरुकुल होता है, उद्योग नहीं.

संस्थानों को उद्योग बनने से बचाइए....उद्योग का एकमात्र उद्देश्य धन संचयन है. गुरुकुल का नहीं. मुफ़्त शिक्षा, सस्ती शिक्षा, सुलभ शिक्षा अगर सबको उपलब्ध हुई न तो भारत विश्व गुरु बने या न बने, एक बेहतर देश ज़रूर बन जाएगा.

- अभिषेक शुक्ल.