पतझर जैसे क्यों दिन हैं
सिसकी वाली सब रातें,
उलझन को अंक समेटे
कितनी अनसुलझी बातें।
क्या समझ हमें आयेगा
नगरों का यह कोलाहल,
हा! कौन यहां पीयेगा
जगती की पीर हलाहल।
जीवन भर का आडम्बर
आडम्बर ही जीवन भर,
मन कहे चलो अब छोड़ो
कुछ शेष बचा है घर पर।
इक खटिया है दो रोटी
जी भर पीने को पानी,
भरपेट हवा मिलती है
दस लोग हज़ार कहानी।
इच्छाओं पर अंकुश है
भोली-भाली सौ आंखें,
दो बूंद धरा पर पड़ती
सबको उग आतीं पांखें।
हर शाम हवा चलती है
हर रात टीमते तारे,
हर सुबह कूकती कोयल
हर दिन क्या ख़ूब नज़ारे।
हम शहरों से ऊबे हैं
वैभव में रहे किनारे,
अब गांव लौट आओ तुम
मन ही मन मीत पुकारे।
हम लौट चलेंगे साथी
शहरों से खाकर ठोकर,
जाने क्या क्या हासिल कर
जाने कितना कुछ खोकर।
बस काट रहे दिन अपना
अनुभव की गीता गाकर,
कर्मों की आहुति देकर
जीवन का आशिष पाकर।
- अभिषेक शुक्ल।