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गुरुवार, 15 नवंबर 2018

सांत्वना नागफनी है, गहरे भेदती है

कई बार भाग जाने का मन करता है। अकेलापन काटने दौड़ता है, किसी का साथ होना चुभता है।

लोग साथ हों तो बेचैनी, न हों तो अजीब सी चुभन। ठहाके हर बार अच्छे नहीं लगते, अपनी हंसी भी कई बार ख़राब लगती है।

ख़ुश होना चाहते हैं लेकिन हो नहीं पाते। सच है जो गया है उसे लाया नहीं सकता, फिर भी मन किसी चमत्कार की उम्मीद लगाए रहता है।

इक उम्मीद कि जो बुरा सपना हम देख रहे हैं अचानक से टूट जाएगा। सब सपना है जिसे हम देखकर परेशान हो रहे हैं। आख़िर आंखें मूंदने पर हमारे आसपास दुनिया होती ही कहां है?

जगह बदलते ही उस जगह के होने का क्या प्रमाण रह जाता है।
शून्य, सब शून्य।

पर शून्य को मन मानता कहां है। थोड़ी सी चेतना मन पर भारी पड़ती है।

साहित्य हर बार दिलासा दे ज़रूरी नहीं, कई बार अवसाद भी देता है। गहरा।

कोई अच्छा नहीं लगता। ऐसा लगता है कि मन पर महादेवी का अधिग्रहण हो गया हो, तन निराला हो गया हो, जिसे कुछ भी सुधि नहीं।

कहानियां स्थिर मन से पढ़ी जा सकती हैं। कविताएं उद्विग्नता में नहीं समझ आतीं। दोनों स्थितियां जूझ रहीं हैं एक-दूसरे से।

मन कह रहा है सब बीत जाएगा। बुद्धि कह रही कि कुछ नहीं बीतता। जो बीत गया है, वह भूलता नहीं, जीवन बच्चन की कविता नहीं है, व्यवहार है।

धरातल पर आकर सिद्धांत बदल जाते हैं। टीस, पीर, मोह सच है, भूलना आदर्श स्थिति।
व्यवहार और आदर्श दो 'ध्रुव' हैं, जिन्हें कोई काल्पनिक रेखा नहीं मिला पाती।

......सांत्वना....दूसरों को देना कितना आसान है....ख़ुद के लिए नागफनी है। गहरे भेदती है।