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शुक्रवार, 19 अक्टूबर 2018

दुनिया को हादसों की आदत हो गई है!



हादसों की आदत हो गई है. हादसे हर बार आंखों में ढेर सारा आंसू देकर चले जाते हैं.

अमृतसर हादसे में जिन लोगों की मौत हुई है उनकी तस्वीरें देखकर दिल थमा सा जा रहा है.

इतनी विभत्स तस्वीरें शायद ही पिछले दिनों में देखने को मिली हों.

बहुत डरावनी तस्वीरें हैं भीतर से कंपकंपा देने वाली.

दशानन का दहन हो रहा था, कइयों के आनन छिन्न-भिन्न हो गए. विभत्स तस्वीरें आ रही हैं. जिन्हें देखने के लिए साहस चाहिए.

यह प्रकृति की मार नहीं थी. न ही किसी आतंकी संगठन की पूर्वनियोजित हत्या. यह हादसा कैसे हुआ इसका अंदाजा उन लोगों भी नहीं जिनकी मौत हो गई.

रावण का पुतला अपने साथ कई जीवित लोगों को लेकर चला गया.

हादसा हुआ पंजाब के अमृतसर के जोड़ा रेल फाटक के पास. ऐसी खबरें चल रही हैं कि कम से कम 58 लोगों की मौत हो गई है और 72 से अधिक लोग घायल हो गए हैं. आंकड़े और भी बड़े हो सकते हैं.

पठानकोट से अमृतसर जा रही डेमू ट्रेन की चपेट में इतने लोग आए और चले गए. रावण दहन के साथ-साथ इतने निर्दोष लोग भी जा चुके हैं.

मृत्यु के बदले कोई मुआवजा नहीं दिया जा सकता. परिस्थितियों और प्रशासन को कोसा जा सकता है लेकिन किसी को वापस नहीं लाया जा सकता.

हे भगवान, मृतआत्माओं को शांति दें...मन बहुत उन्मन है.



-अभिषेक शुक्ल

(तस्वीर प्रतीकात्मक)

मंगलवार, 16 अक्टूबर 2018

अंततः कवि के हिस्से रिक्तता आती है





वही कविताएं सबसे ख़ूबसूरत होती हैं जो कवि के मन में पलती हैं। जिन्हें कोई और नहीं सुन पाता। जिनकी तारीफ़ कवि ख़ुद ही करता है, जिन्हें वह ख़ुद लिखकर मिटा देता है।

उसकी नज़रों में अपनी अनगढ़ कविताएं सबसे ख़ूबसूरत होती हैं लेकिन दुनिया के लिए वह उन्हें छंदों की बेड़ियों में जकड़ता है, अलंकारों का तड़का लगाता है, आलम्ब खोजता है, समास जोड़ता है, संयोग तलाशता है, वियोग ख़ुद छलक जाता है।

दरअसल यह सब दिखावा है। कवि की जिन कविताओं को लोग पढ़ते हैं वे बनावटी होती हैं। असली कविताएं तो कवि के मन में पलती हैं, जिन्हें वह किसी से नहीं कहता। ख़ुद से भी नहीं।

अच्छी कविता की तलाश में हैं तो कवि को पढ़ें, उसकी रचनाओं को नहीं। बहुत बनावटी होते हैं किताबों के अक्षर।

कवि अपनी रचनाओं में उन्माद की हद तक काट-छांट करता है। ज़रा भी दयावान नहीं।

कवि को पता है कि उसकी रचनाएं उत्पाद नहीं हैं जिनके विनिमय से उसे कुछ मिले। कवि जानता है कि वह मूर्तिकार नहीं है, उसे पता है कि वह सुनार भी नहीं, फिर भी उसे कविताओं की काट-छांट बहुत प्यारी है। क्यों है, इसका जवाब उसे भी नहीं पता।

वह उलझता है, टूटता है, थकता है, बेचैन रहता है, कहते-कहते अटकता है क्योंकि कवि मन की कभी कह नहीं पाता।

अंततः कृत्रिमता उस पर बहुत भारी पड़ती है, जो उसे भीतर से ख़ाली कर देती है।

रिक्तता!
कवि की यही नियति है जो उसे बिन मांगे मिल जाती है, जिसमें वह कुछ रचने की संभावनाएं तलाशता है।


-अभिषेक शुक्ल