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गुरुवार, 20 सितंबर 2018

हम भाषा के अपराधी हैं

सहज भाषा के नाम पर हमने, भाषा का वास्तविक सौंदर्य बोध खो दिया है।

नई पीढ़ी कितना कुछ क्लिष्ट कहकर अनदेखा कर देगी। कितने अध्याय अनछुए रह जाएंगे। 

भाषाई सरलीकरण के नाम पर कितने शब्दों की निर्मम हत्या हुई है। उन्हें याद रखने वाली पीढ़ी अंग्रेज़ी में भविष्य तलाश रही है। 

एक पूर्वाग्रह कि हिंदी में लिखा जो कुछ भी है, सब अपशिष्ट है; गहरे तक बैठ गया है। इसे पुष्ट करने वाले लोगों में कोई अपराधबोध नहीं है। उन्हें लगता है, उन्होंने भाषा को जनवादी बनाया है। 

जनवाद! 
भाषा पर बहस करने वाले ज़्यादातर लोगों के भीतर निपट आभिजात्य आत्मा है। स्वप्न या मद में भी इन्हें 'जन' की सुधि कहां?

समाचारों की भाषा साहित्य की भाषा बन गई है। संपादकों ने अपने 'वरिष्ठों' से सीखा है कि भाषा ऐसी हो, जिसे अनपढ़ भी समझ ले। किसी ने अनपढ़ को सुपढ़ बनाने में रुचि ही नहीं दिखाई, क्योंकि 'जन' की सुधि किसे?

यही वजह है कि अनपढ़ व्यक्ति को 'एक्सक्यूज़ मी' और 'प्लीज़' कहना आ गया लेकिन 'कृपया' अथवा 'क्षमा' कहना नहीं आया।

साहित्य वही नहीं है जिसे प्रेमचंद ने लिखा है, दिनकर, प्रसाद, अज्ञेय, महादेवी और भारतेंदु ने भी जो लिखा उसे भी साहित्य ही कहेंगे। बहुत नाम छूटे भी हैं इनमें। 

विश्वभर की तमाम भाषाएं लोग सीख रहे हैं। जिन लिपियों और भाषाओं से हमारा कोई परिचय नहीं, उन्हें हम सीख लेते हैं, लेकिन हिंदी?

शब्द क्लिष्ट नहीं होते, सहज होते हैं। क्लिष्ट कहकर उन्हें प्रचलन से बाहर कर दिया जाता है। वे किताबें जिनमें तथाकथित 'क्लिष्टता' का प्रयोग ज़्यादा है, वे निरर्थक नहीं, उन्हें पढ़ा और समझा जा सकता है। 

क्लिष्टता से जुड़ा हुआ एक प्रसंग याद आ रहा है। उन दिनों मैं दिनकर को पढ़ रहा था। उन्होंने लिखा,

"गत्वर, गैरेय, सुघर भूधर से, लिए रक्त-रंजित शरीर, 
थे जूझ रहे कौंतेय-कर्ण, क्षण-क्षण करते गर्जन गंभीर।"



मुझे गत्वर, गैरेय, सुघर और भूधर का अर्थ नहीं पता था। मुझे लगा कि ये शब्द मुझसे कह रहे हों कि 'दिनकर को समझना हो तो पढ़ो। तुम्हें समझ में नहीं आ रहे शब्द तो यह तुम्हारी जड़ता है, दिनकर इसके लिए दोषी नहीं हैं।'

हम सब शब्दों के अपराधी हैं। हमने शब्दों की उपेक्षा की है। सृजनशीलता की चौखट से शब्द अपमानित होकर लौटे हैं। शब्द निहार रहे हैं नई पीढ़ी को, मिल रही उपेक्षा से टूटते जा रहे हैं। 

जब किसी देश में नवीन राज व्यवस्था जन्मती है और वृद्ध राजा को अपदस्थ कर, नया राजा पदस्थ होता है तब वृद्ध राजा राजपाट, संन्यास या वानप्रस्थ नहीं चाहता। वह मृत्यु चाहता है।

कुछ शब्द वही चाह रहे हैं। नई पीढ़ी उनकी अंतिम इच्छा पूरी कर रही है.

शनैः शनैः।

मंगलवार, 18 सितंबर 2018

इश्क़ में मनमर्ज़ियां चलती कब हैं...

एक लड़की अपने प्यार के साथ भागने के लिए कैसे भी तैयार हो जाती है, बिना कुछ सोचे-समझे लेकिन लड़के बहुत सोचते हैं। उनके लिए बेड सेफ़ साइड है, लिव-इन या शादी मुश्किल। मां-बाप शादी के लिए तैयार भी हों तो भी, लड़के अकसर बचते हैं। वजह बेहतर की तलाश हो, या कुछ और लेकिन अकसर ऐसा होता है। प्रैक्टिकल में लड़कियां ज़्यादा सीरियस होती हैं रिश्तों को लेकर, लड़के भागना चाहते हैं रिश्तों से। अपवाद भी हैं।

कहानी मनमर्ज़ियां की...

अगर डायरेक्टर दमदार हो तो एक्टर की कायापलट करने में उसे ज़्यादा वक़्त नहीं लगता। अनुराग कश्यप ने वही किया है विकी कौशल के साथ। विकी कौशल शक्ल से बेहद मासूम नजर आते हैं। भोले-भाले स्मार्ट नौजवान टाइप; लेकिन मनमर्जियां में उनके कैरेक्टर को देखने के बाद विश्वास करना मुश्किल हो जाता है कि वे मसान, राज़ी, लस्ट स्टोरीज या संजू वाले विकी कौशल हैं।


मनमर्ज़ीयां में उन्होंने ख़ुद को पूरी तरह बदल लिया है।



तापसी पन्नू अच्छी एक्ट्रेस बनकर उभरी हैं। इस फ़िल्म में उनकी शुरुआती सनक देखने लायक है। कंगना याद आती हैं। थोड़ी सी सनकी टाइप।

कनिका ढिल्लन ने कहानी अच्छी लिखी है। हालांकि कहानी बिलकुल फ़िल्मी है। रूमी(तापसी) की तरह उदार पेरेंट्स शायद ही भारत में होते हों। अगर होते भी होंगे तो उन्हें विलुप्तप्राय जीव की श्रेणी में डालकर रेड लिस्ट में रखने लायक है।
फ़िल्म की कहानी जैसी भी है, अनुराग कश्यप ने उसे पर्दे पर ख़ूबसूरती से उतारा है। फ़िल्म के क्लाइमेक्स में आपको कई फिल्मों की कहानियां याद आ सकती हैं।

कौन-कौन सी, यह फ़िल्म देख लीजिए फिर बताइए।

फ़िल्म में असली ट्विस्ट मध्यांतर के बाद आता है। असली कहानी तभी शुरू होती है। अभिषेक बच्चन एक्टिंग में वापसी अरसे बाद हुई है। उनके करियर की बीते कई वर्षों में आई रिक्तता को भरने वाली फ़िल्म है यह।

फ़िल्म की शुरुआत में उनकी एक्टिंग ज़रा भी नहीं लुभाती लेकिन मध्यांतर के बाद असली हीरो वही हैं।

विकी कौशल विकी के ही किरदार में हैं। रूमी के किरदार में हैं तापसी। रॉबी बने हैं अभिषेक बच्चन।

विकी है लापरवाह प्रेमी, उसका प्यार बस बेड पर परवान चढ़ता है। प्यार कम और फ़्यार ज़्यादा करना होता है. प्यार भी उसका अलग की क़िस्म का है. ज़िद्दी आशिक़ टाइप। इमरान हाशमी याद आते हैं फ़िल्म में कई बार। मर्डर-2 के इमरान हाशमी का डायलॉग सूट करता है विकी के किरदार पर, 'तुम मेरी ज़रूरत हो।'
विकी की ज़रूरत लगी है रूमी।

अभिषेक बिलकुल मर्यादा के अवतार लगे हैं। भूत ही समझिए, होते तो हैं, दिखते नहीं ऐसे पुरूष। इतना शालीन, मर्यादा वाला लड़का आसपास में मैंने नहीं देखा, अगर आपने देखा हो तो फ़ौरन चरण गहो, देवता है वह आदमी.

फ़िल्म में दो लड़कियां आती-जाती रहती हैं. जब भी कहानी में नया मोड़ आना होता है दोनों दिख जाती हैं. पहले लगता है कि इनका भी कोई किरदार होगा लेकिन ये बस होती हैं.

फिल्म के कुछ गाने बेहद अच्छे हैं. दरया, चोंच लड़ियां, सच्ची मोहब्बत. अमित त्रिवेदी म्यूजिक डायरेक्शन कई जगह बहुत कर्कश लगा है लेकिन ओवरऑल ठीक है.

वक़्त निकालिए, अरसे बाद कोई मूवी आई है जिसे देखा जा सकता है. देखकर यही कहेंगे-
इश्क़ में मनमर्ज़ियां चलती नहीं, बस मोहब्बत होनी होती है, हो जाती है।