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गुरुवार, 24 मई 2018

जिस देश के प्रधानमंत्री खुद को चायवाला कहते हों, वहां चाय बेचने पर पाबंदी क्यों?

नोयडा फिल्म सिटी में चाय बेचने का लीगल/इलीगल टेंडर खत्म कर दिया गया है। चायबंदी लागू हो गई है। चायबंदी क्या कहें, गुमटीबंदी हो गई है। पहले खाने-पीने के तमाम जुगाड़ सुबह दस से रात नौ बजे तक चालू रहते थे लेकिन न जाने किस देवता की कृपा हो गई है कि फिल्म सिटी में एक भी गुमटीवाला नहीं दिख रहा है। हुक्का-पानी की जरूरत तो कभी पड़ी नहीं लेकिन चाय-पानी पर संकट आन पड़ा है।

एक ऐसे वक्त में जब हमारे पीएम खुद को चायवाला कहते हों, तब उन्हीं के राज में फिल्म सिटी में चाय वालों की आजीविका पर लगा ग्रहण, प्रधानमंत्री का व्यक्तिगत अपमान लगता है।

चाय तो राष्ट्रीय पेय पदार्थ है। चाय, अर्थात कलियुग का सोमरस। मन और तन तृप्त करने की औषधि। न मिले तो मन बेचैन हो जाए, मिल जाए तो रोम-रोम खिल जाए। ऐसा सिर्फ मेरा ही नहीं, देवताओं का भी मानना है। मौसम कितना भी उबाल क्यों न मारे, चाय पीने वालों के कदम खुद-ब-खुद गुमटियों की ओर बढ़ चलते हैं। गर्मी में भी चाय का विकल्प, चाय ही है। चाय का विकल्प कुछ भी नहीं, कोक नहीं, शर्बत भी नहीं।

कुछ दिनों पहले तक चाय की कमी महसूस नहीं होती थी। जहां चाय की दुकान वहां जनता का जमवाड़ा। जहां चाय, वहीं चर्चा। असली लोकतंत्र की झलक चाय के दुकानों पर ही मिलती है। चाय की दुकानों में संसद से कम सार्थक बहसें नहीं होती हैं। इन दिनों फिल्म सिटी से चाय की दुकानें गायब हैं। गलियों में अजीब तरह का सन्नाटा पसरा है। लोग आजकल सड़कों पर कम दिखने लगे हैं। नहीं ऐसा बिलकुल नहीं है कि न्यूज रूम में अचानक से खबरों की बाढ़ आ गई है, जिसकी वजह से सारे पत्रकार खबर बनाने में व्यस्त हो गए हैं। खबरों में इजाफा नहीं हुआ है, बस फिल्म सिटी में चाय की गुमटियां नहीं दिख रही हैं।

लोग दफ्तर से बाहर चाय पीने निकल तो रहे हैं लेकिन उदास होकर वापस लौट आ रहे हैं। कहीं ढूंढने से भी कोई गुमटी नहीं दिख रही है।

कुछ लोग पुलिस वालों को इसका श्रेय दे रहे हैं तो कुछ सरकार को कोस रहे हैं। फिल्म सिटी में इन दिनों कोई चाय वाला, पकौड़े वाला, नमकीन वाला नहीं दिख रहा है।

पिछले कई दिनों से पुलिस गुमटियां बंद करवाने में लगी है। अब फिल्म सिटी में कोई स्ट्रीट वेंडर नहीं दिखता। पहले करीब बीस से ज्यादा दुकानें सजी रहती थीं। जब जो चाहो मिल जाता था। जब एक ही कुर्सी पर बैठे-बैठे मन ऊब जाता, लोग आराम करने के लिए बाहर निकल जाते, लेकिन कई दिनों से यह सिलसिला थम सा गया है। लोग बाहर तो निकल रहे हैं लेकिन बाहर निकलने पर गर्म हवाओं के सिवा कुछ मिल नहीं रहा है।

कैंटीन तक हर किसी की पहुंच नहीं होती। वहां वैसे भी लोग खाना खाने जाते हैं, चाय के लिए लोग गुमटी या ठेले पर जाना ही पसंद करते हैं क्योंकि चाय पीने का स्वाद वहीं आता है।



न जाने किसकी वजह से फिल्म सिटी से गुमटियां फरार हैं। इस वजह का भी खुलासा नहीं हो पा रहा है कि प्रशासन को चाय वालों से दिक्कत क्या है। अगर यह प्रशासन का आदेश है तो इस आदेश से बहुतों का रोजगार छिना है। गुमटी लगाने वाले व्यापारी नहीं हैं। उन्हें घर चलाने के लिए रोज काम करना पड़ता है। रोज पकौड़े तलने पड़ते हैं, रोज चाय बनानी पड़ती है, तब जाकर दो वक्त की रोटी नसीब होती है।

सार्वजनिक मंचों से कई बार प्रधानमंत्री ने खुद को चाय वाला कहा है। बेरोजगार युवाओं से पकौड़ा तलने की भी बात भी कही है। कोई, जिसकी पहुंच प्रधानमंत्री जी तक हो, मेरा एक संदेश पहुंचा दे कि फिल्म सिटी से चायवालों को भगा दिया गया है।

कोई पीएम से कहे कि चाय और पकौड़े वालों की दुकानें फिल्म सिटी में फिर से बहाल की जाएं। सवाल किसी की आजीविका का है। हमारे पैसे तो बच रहे हैं लेकिन किसी की रोजी-रोटी बंद हो गई है। दुकान खरीदने की औकात हर किसी की नहीं होती, कैंटिन के टेंडर पर कब्जा करने की भी।

कुछ लोगों को सड़क जिंदा रखती है। जिन्हें सड़क पर कुछ बेचने से रोका गया है उनके पेट पर लात मारा गया है। उनके भी बच्चे होंगे, घरवाले होंगे। उनके भी बच्चे स्कूल जाते होंगे, घरों में लोग बीमार पड़ते होंगे। मकान का किराया उन्हें भी देना पड़ता होगा। दुकान बंद होने से होने से उनकी जिंदगी थम सी गई होगी। नई जगह दुकान जमाने में वक्त लगता है। कमाने में तो और भी ज्यादा।

मुझे नहीं पता कि सरकार के पास स्ट्रीट वेंडर्स के लिए कौन-कौन से कायदे-कानून हैं। मेरे पास जरूरी जानकारियां भी नहीं हैं। जुटाने की कोशिश भी नहीं की, लेकिन दुकानों का बंद होना खल रहा है।

हम चाय न पिएं तो भी कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा, लेकिन किसी की कमाई छिन जाएगी। इससे पहले कि उनका दिवाला निकल जाए, उनकी दुकानें बहाल कर दी जाएं।

यह मानवता नहीं है कि किसी को कमाने से रोक दिया जाए। इसे भावनात्मक अपील ही समझें लेकिन इस तरह से किसी को कमाने से रोक देना किसी के मानवीय अधिकारों का हनन है। कोई मेरी फ्रैंड लिस्ट में प्रभावी व्यक्ति है तो उससे अनुरोध है कि फिल्म सिटी के स्ट्रीट वेंडर्स के लिए कुछ करे। कई परिवारों की जिंदगी का सवाल है।  किसी के घर चूल्हा जलेगा तो पुण्य आपको भी मिलेगा। पाप तो जीवनभर कमाना है, कमाने के लिए तो पूरी जिंदगी पड़ी है, तनिक पुण्य का काम भी लगे हाथ कर लिया जाए।
शुक्रिया।