पेज

शनिवार, 28 नवंबर 2015

भारत असहिष्णु राष्ट्र नहीं है

इन दिनों भारत में तथाकथित असहिष्णुता का माहौल बनाया जा रहा है। असहिष्णुता की विधिवत पृष्ठभूमि तैयार की जा रही है। साहित्यकारों का पुरस्कार लौटना, अभिनेताओं के बड़बोले और ऐसे बयान जिसे सुनकर हर भारतीय की आत्मा आहत होती है, धार्मिक प्रतिनिधियों के ऐसे वक्तव्य जिसे सुनकर लगता है कि भारत इतना असहिष्णु हो गया है कि पाकिस्तान भी सहिष्णु राष्ट्र लगने लगा है। भारत की असहिष्णुता साबित करने के लिए लोग युद्ध स्तर से इसी काम में लग गए हैं। असहिष्णुता का बीज बोया जा रहा है। भारत को असहिष्णु राष्ट्र घोषित करने के लिए राष्ट्रीय स्तर का कार्यक्रम चलाया जा रहा है। इस कार्यक्रम के कार्यकर्त्ता हैं न्यूज़ चैनल्स, राजनितिक पार्टियां, धार्मिक राजनीति की फसल काटने वाले ढोंगी लोग और सेलेब्रिटीज़ जिनकी बातों पर जनता को आँख मूँद कर विश्वास होता है।न्यूज़ चैनल्स पर वही दिखाया जा रहा है जिससे भारतीय जनमानस में कटुता पैदा हो, तलवारें खिंचे, रक्तपात और नरसंहार हो।
 जो वास्तव में बौद्धिक वर्ग हैं और सच्चे भारतीय हैं उन्हें तो कहीं असहिष्णुता नज़र नहीं आती। कुछ लोगों की तथाकथित समाजिकता ने देश की संस्कृति पर सवाल उठा दिया है। धर्म के दलालों ने तो देश में अराजकता का ऐसा बीज बोया है जो भले ही कभी उग सकने में सक्षम न हो  पर त्वरित रूप से तो अकारण ही कष्ट देता है। मन कहता है हाय! जल रहा है देश जबकि वास्तविकता यह है कि कुछ लोगों की लगायी गई आग है जिसे जनता कभी भी पानी फेंक कर बुझा सकती है।
असहिष्णुता का आशय ऐसी परिस्थिति से है जिसमें किसी भी विपरीत धर्मावलम्बी को हेय दृष्टि से देखा जाये, उन्हें आतंकित किया जाये, उनका उत्पीड़न किया जाये किन्तु भारत में तो ऐसी कोई परिस्थिति दूर-दूर तक नहीं दिखती। हाँ यह नितांत विचार सत्य है कि व्यक्तिगत झगड़ों को सांप्रदायिक दंगा घोषित करने की प्रवित्ति हो गयी है इन दिनों हर बुद्धिजीवी की। हर झगड़ा सांप्रदायिक दंगा नहीं होता।
एक भारतीय होने के कारण कुछ बातें चुभती हैं। मेरे देश पर असहिष्णुता का कलंक मढ़ा जा रहा है। मैं जरूर जानना चाहूँगा की भारत में असहिष्णुता कहाँ है?
अभी कुछ महीनों पहले भारत की एक अपूर्तनीय क्षति हुई। भारत के मिसाइल मैन कहे जाने वाले, युवाओं के आदर्श और भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ ए.पी.जे.अब्दुल कलाम का निधन हुआ।कलाम साहब आधुनिक भारत के ऐसे सपूत है जिनका ऋण कभी चुकाया नहीं जा सकता।उनका जन्म एक मुस्लिम परिवार में हुआ था। जब उनका निधन हुआ तब पूरा देश रोया। रोने वालों में केवल मुसलमान नहीं थे बल्कि हर सच्चा भारतीय रोया था। भारत का हर युवक उन्हें आदर्श मानता है। हर बच्चा जिसे विज्ञान में रूचि है उसके घर में देवी-देवताओं के पोस्टर हों या न हों कलाम साहब के पोस्टर जरूर होते हैं। हर विद्यार्थी उनकी तरह बनना चाहता है। क्या भारत असहिष्णु राष्ट्र होता तो ऐसा होता?
अभी कुछ महीने ही हुए हैं मुहर्रम का त्यौहार बीते हुए।यह एक ऐसा त्यौहार है जिसे हिन्दू और मुसलमान दोनों मिलकर मानते हैं। ताज़िया मुसलमानों से कहीं ज़्यादा हिंदुओं के घरों में बनता है। कर्बला पर जितनी संख्या में मुसलमान परिक्रमा नहीं करते उससे कहीं ज्यादा हिंदू करते हैं। मज़ारों पर माथा टेकते हैं, दरगाहों पर चादर चढ़ाते हैं।
मेरे गांव में केवल एक घर मुसलमान है। उसके यहाँ ताज़िया कई बार नहीं बनता पर हिंदुओं के यहाँ घर-घर में बनता है। ताज़िया जो बनवाता है वो क़ुरबानी की रात से अगले दिन शाम तक पानी तक नहीं पीता। क़ुरबानी के ग़म में मातम मनाता है।
मैं भारत में बौद्धिक आतंक फैलाने वाले असहिष्णु लोगों से पूछना चाहूँगा कि ऐसा किसी असहिष्णु राष्ट्र में हो सकता है क्या?
कौन सा ऐसा राष्ट्र है जहाँ के लोग विपरीत धर्म पर आस्था रखते हैं और दुसरे धर्म के आराध्य देव की उपासना करते हैं? ये केवल भारतवर्ष में संभव है जहाँ "सर्व धर्म समभाव" की परंपरा है।
भारत इकलौता ऐसा राष्ट्र है जहाँ सभी धर्मों के अनुयायी सुरक्षित अनुभूत करते हैं। जहाँ हर भारतवासी जानता है कि भले ही हमारी उपासना की पद्धतियाँ अलग हों किन्तु सब तो उसी परमेश्वर की संतान हैं और सारी प्रार्थनाएं उन्हीं को जाती हैं चाहे उपासना मंदिर में किया जाये या मस्जिद में या चर्च में।
भारत की आदि काल से यही सनातन संस्कृति रही है। जाने कौन से लोग हैं जिन्हें भारत असहिष्णु राष्ट्र लगता है।
कुछ राष्ट्रद्रोहियों के बयानों से भारत असहिष्णु हो जायेगा? कुछ व्यक्तिगत झगड़ों से भारत धर्मनिरपेक्ष नहीं रह जायेगा। ये जनता भी भली-भांति समझती है कि ये राजनीति की चालें हैं। कोई भी राजनीति भारत की एकता,अखण्डता और सम्प्रभुता पर प्रभाव नहीं डाल सकती। ये राजनीति दो दिन में दफ़न हो जायेगी पर भारत की साझी संस्कृति युगों-युगों तक सलामत रहेगी।
हम भारतवासी हैं और भारतीयता हमारे रक्त में है। सनातन संस्कृति हमारे रक्त में है।क्रिसमस ईसाइयों का त्यौहार है पर लगभग-लगभग हर स्कूलों में मनाया जाता है।हमारे सपनों में भी सांता क्लाज़ आता है और खिलौने छोड़ जाता है। नया साल हम भी मानते हैं। मुहर्रम मनाया ही जाता है, पारसियों का त्यौहार नौरोज़ भी हम मानते हैं इससे ज्यादा साझा संस्कृति और भाई-चारे का उदाहरण क्या होगा? इतना मिल-जुलकर तो संसार में किसी भी देश के लोग नहीं रहते फिर भी भारत असहिष्णु है। भारत असहिष्णु नहीं है...असहिष्णु है उन सबकी रुग्ण मानसिकता जिन्हें भारत जितना उदार देश भी असहिष्णु दिखता है।आप भले ही कुछ भी कहें पर हम भारतीय हैं और हमारी संस्कृति हमें "विश्वबंधुत्व", "वसुधैव कुटुम्बकम्" और "सर्व धर्म समभाव" का पाठ पढ़ाती है.....हमने विश्व को सहिष्णुता का उपदेश दिया हम असहिष्णु कैसे हो सकते हैं?

शुक्रवार, 20 नवंबर 2015

प्रिये तुम्हारे प्रेम पाश ने



कुछ दिनों से सोच रहा था की अपने कविताओं की एक वीडियो अपलोड करूँ जिसे आप सब देखें...पर बस सोच ही रहा था...दीपावली पर मैंने इस बार एक कविता रेकॉर्ड किया...

"प्रिये तुम्हारे प्रेम पाश ने"....सबसे पहले इस गीत को घर में गाया...अम्मा,मम्मी,पापा और भइया...इन सबने सबसे पहले सुना...उन्होंने क्या कहा ये नहीं बताऊंगा....पर आप को कैसा लगा ये जरूर जानना चाहूँगा......इस वीडियो को record किया है आकाश ने...छोटा सा, प्यारा सा,मासूम सा बच्चा....जिसकी वजह से ये वीडियो बन सकी......आप भी सुनिए.....और मेरे साथ गुनगुनाइए.... आभार!  :)

ये वीडियो YouTube पर भी है..लिंक है-





priye tumhare https://t.co/Z4DS1uLDfh

सोमवार, 2 नवंबर 2015

सीरिया संकट का वैश्वीकरण

सीरिया के गृह युद्ध ने विश्व को ऐसे रणक्षेत्र में लाकर खड़ा कर दिया है जहाँ युद्ध के दर्शक भी वहां के सैनिकों एवं नागरिकों से कम असुरक्षित नहीं हैं भले ही युद्ध का प्रसारण उन तक दूरदर्शन के माध्यम से पहुँच रहा हो।
इस युद्ध का रक्तपात ही एक मात्र लक्ष्य है और इस हिंसक एवं बर्बर युद्ध के अंत का कोई मार्ग निकट भविष्य में भी नहीं दिख रहा है।
इस युद्ध के कारणों पर गौर करें तो प्रतीत होता है कि यह केवल सीरिया का गृह युद्ध नहीं है अपितु यह युद्ध दो परस्पर विरोधी वैश्विक गुटों का है जो शीत युद्ध के समाप्ति के बाद दर्शक दीर्घा में बैठे-बैठे सीरिया में व्याप्त अराजकता और गंभीर मानवीय संकट के उत्प्रेरक बने हुए हैं।
सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद की सरकार एवं उनकी सैन्य शक्ति तथा विद्रोहियों के संगठन एवं उनकी सामूहिक सैन्य शक्ति दोनों में से कोई भी एक इस स्थिति में नहीं हैं कि युद्ध का परिणाम अपने पक्ष में करा सकें। ऐसी दशा में रक्तपात और अराजकता के अतिरिक्त किसी अन्य अवस्था की कल्पना भी आधारहीन है।
सरकार एवं विद्रोही संगठनों में कोई समझौता इसलिए भी होना असंभव है कि विद्रोहियों की मांग राष्ट्रपति बशर अल असद एवं उनके सरकार को अपदस्थ करने की है वहीं सरकार ऐसे किसी भी शर्त को मानने के लिए तैयार नहीं है। कुछ दिनों से अमेरिका और रूस के संयुक्त प्रयासों के फलस्वरूप ऐसे आसार बन रहे हैं कि राष्ट्रपति अपना पद त्याग करेंगे, इस बार रूस सहमत भी हो गया है और आम चुनावों के लिए भी सहमति बन रही है किन्तु वास्तविकता की धरातल पर अभी ये बातें बचकानी लगती हैं।
सीरिया के विध्वंसक गृह युद्ध का एक और महत्वपूर्ण कारण जो दुर्भाग्य से अब आधे एशिया और यूरोप को अपने चपेट में ले रहा है  वह है जातीय एवं धार्मिक संघर्ष। सीरिया में धार्मिक एवं जातीय पहलुओं ने ही इस युद्ध को इतना जटिल एवम् अन्तहीन बनाया है।
सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद एवं उनके सत्ता के सभी सहयोगी वहां के अल्पसंख्यक शिया समुदाय(अलवाइट) से हैं वहीं विद्रोही दल बहुसंख्यक सुन्नी समुदाय के सदस्य हैं। शिया और सुन्नी समुदाय में हिंसक तनाव कोई नया मसला नहीं है। मुस्लिम बाहुल्य राष्ट्रों में अल्पसंख्यक समुदाय हमेशा से ही बहुसंख्यक समुदाय के लोगों से शोषित होते हैं,  फलस्वरूप सामूहिक नरसंहार होते हैं किन्तु ऐसी घटनाएं मुस्लिम राष्ट्रों में शुरू हुए अचानक से जन आन्दोलन के कारण बहुत तेज़ी से बढ़ी हैं। सन् 2010 के बाद से ही ऐसे आन्दोलन खाड़ी राष्ट्रों में दिन-प्रतिदिन विध्वंसक होता जा रहा है। यह ज़िहाद अब धार्मिक न होकर नितांत जातीय एवम् सम्प्रदायिक हो गया है।
सीरिया के अस्थिर राजनीतिक संग्राम के कारणों का अध्यन करें तो वैश्विक महाशक्तियों का अनुचित हस्तक्षेप ही मुख्य कारण प्रतीत होता है।
खाड़ी के देश अथवा अरब विश्व अपने पेट्रोलियम एवम् तेल संसाधनों के लिए विख्यात है, ऐसे में विश्व के सभी ताक़तवर राष्ट्रों एवम् महाशक्तियों जैसे अमेरिका,रूस,ब्रिटेन तथा पश्चिमी राष्ट्र अपने-अपने हितों को साधने के लिए ऐसे राष्ट्रों पर अपनी गिद्ध दृष्टि बनाए रखते हैं। सीरिया के पड़ोसी राष्ट्र भी अपने सुरक्षित भविष्य के लिए इस युद्ध में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष भूमिकाओं में संलग्न हैं।
सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद के सरकार के विद्रोहियों के समर्थन में अमेरिका, ब्रिटेन,फ़्रांस जर्मनी, टर्की और सऊदी अरब जैसे राष्ट्र है तो समर्थन में रूस,चीन और ईरान हैं।
विश्व की लगभग सभी प्रमुख शक्तियों के हस्तक्षेप के कारण यह युद्ध केवल सीरिया का गृह युद्ध नहीं रह गया है वरन वैश्विक युद्ध हो गया है जिसकी लपटें भारत में भी सुलग रही हैं।
सीरिया के गृहयुद्ध और कलह के समाप्ति के आसार निकट भविष्य में भी नहीं दिख रहे हैं।
मार्च 2011 में सीरिया में व्याप्त राजनितिक भ्रष्टाचार के विरोध में शुरू हुआ जन आन्दोलन आज आज अपने विध्वंसक स्वरुप में है। कई ऐतिहासिक महत्त्व वाले शहर ध्वस्त हो गए। कितने मासूम मरे और अभी कितने ही और मरेंगे। इस भीषण नरसंहार और रक्तपात का कोई परिणाम नहीं है।
पिछले पाँच वर्षों में लाखों लोग मारे जा चुके हैं। लाखों लोग जेलों में बंद हैं। एक बड़ी जनसँख्या गुमशुदा है। 6.7 मिलियन नागरिक अव्यवस्थित जीवन जीने के लिए बाध्य हैं।4 मिलियन से अधिक सीरियन नागरिकों ने टर्की एवम् जॉर्डन के शरणार्थी शिविरों में शरण ली है। बड़ी संख्या में सीरियाई नागरिकों ने यूरोपीय देशों में वैध-अवैध प्रवेश किया है किन्तु यूरोपीय राष्ट्रों को अब मुस्लिम शरणर्थियों को शरण देने में भय लग रहा है क्योंकि जिस तरह की राजनीतिक परिस्थितियों से वे भाग कर आये हैै, जिस तरह की विध्वंसक घटनाओं से वे पीड़ित हैं उन्हें देखकर यह कहना मुश्किल है कि वे वहां शालीनतापूर्ण आचरण करेंगी।
सीरिया में उत्पन्न हुए मानवीय संकट के लिए एक से अधिक राष्ट्र जिम्मेदार हैं।
23 मिलियन से अधिक आबादी वाले देश में आधे से अधिक लोग अत्यंत निर्धनता में जीवन यापन कर रहा हैं जहाँ दो वक़्त का पेट भर पाना भी किसी सपने से कम नहीं है।
शिक्षा एवम् स्वास्थ्य व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकताओं में से एक हैं किन्तु ऐसी बुनियादी सुविधाओं से भी सीरियाई नागरिक वंचित हैं।
संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद ने इस गृह युद्ध के लिए कमर कसा है किन्तु वैश्विक स्तर पर जिन मुद्दों पर जहाँ संयुक्त राज्य अमेरिका भी शामिल हो वहाँ यह संस्था मूकवत और पक्षपात पूर्ण आचरण करती है। वैसे भी कोई संस्था युद्ध की स्थिति में कोई मदद नहीं कर सकती।राहत कार्यों का क्रियान्वयन तभी संभव है जब सरकार और विरोधी गुटों में संघर्ष वीराम हो।
सीरिया विवाद केवल तभी सुलझाया जा सकता है जब वहां की सरकार और विद्रोही गुटों में विध्वंसक युद्ध बंद हो तथा अमेरिका और रूस का आक्रामक हस्तक्षेप बंद हो।
सीरिया की बशर अल असद के नेतृत्व वाली अलोकतांत्रिक  सरकार और विद्रोही संगठन जब तक किसी स्थायी शांतिपूर्ण समझौते पर बहस करने के लिए तैयार नहीं होते और ऐसे राष्ट्र जिनकी वजह से सीरिया में  हिंसात्मक विध्वंस और अराजकता विद्यमान है जब तक निष्पक्षता से बिना अपना स्वार्थ साधे सीरिया की मदद नहीं करेंगे किसी भी शांति एवम् सौहार्दपूर्ण वातावरण की परिकल्पना भी कोरी कल्पना है। वर्तमान में सीरिया संकट का कोई समाधान दिख नहीं रहा है। भविष्य में या तो कोई चमत्कार हो अथवा ईश्वरीय कृपा तभी वहां कोई शान्ति स्थापित हो सकती है अन्यथा यह हिंसात्मक आग शनैः शनैः कई राष्ट्रों को झुलसएगा।
-अभिषेक शुक्ल