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शनिवार, 26 सितंबर 2015

कंदर्प का संहार होना है...


एक कम्पन हो रहा मेरे
ह्रदय में
मेरे विखण्डन को कोई 
आतुर हुआ है,
इस तरह उद्विग्न है स्वासों 
का प्रक्रम,
जैसे यम ने आज ही सहसा 
छुआ है,
मैं बना हूँ लक्ष्य संभवतः 
प्रलय का
आज मेरे दर्प का उपचार 
होना है,
युगों से जिस नेह ने जकड़ा 
मुझे था,
आज उस कन्दर्प का संहार 
होना है।।
-अभिषेक शुक्ल
(प्रस्तुत पंक्तियाँ मेरी कविता "अविजित दुर्ग" के आगे की कड़ी है)

बुधवार, 23 सितंबर 2015

मैं अविजित दुर्ग हूँ अपने समय का...

मैं अविजित दुर्ग हूँ अपने समय का
सैकड़ों सेनाएं थक कर हार बैठीं,
किन्तु टूटा नहीं मेरा एक कण भी
धैर्य साहस वीरता सब वार बैठीं।
किन्तु अब मैं स्वयं ही फटने लगा हूँ
चल रहा एक द्वंद्व और एक युद्ध मुझमें,
शांति और उत्पात का संगम बना हूँ
आज गुण-अवगुण सभी हैं क्रुद्ध मुझमें।।
-अभिषेक
(क्रमशः)

रविवार, 20 सितंबर 2015

गरज-गरज घनघोर घटा ने..


गरज गरज घनघोर घटा ने आज बरसने की
ठानी है,
बरसा दे ओ नभ् के ईश्वर जितना तेरे तेरे घर
पानी है,
तू विस्तृत है तो हम सागर बन तेरा आह्वान
करेंगे,
मेघदूत तेरे कलरव का हम हिय से सम्मान
करेंगे।।
-अभिषेक शुक्ल

शुक्रवार, 18 सितंबर 2015

साहित्य मंथन

यदि सारे साहित्यकार एक-दूसरे की घृणित
आलोचना छोड़कर कुछ सकारात्मक कार्य
करने लगें, नए प्रतिभाओं को हेय दृष्टि से न
देखकर उनकी अनगढ़ प्रतिभा को गढ़ें, सुझाव दें
तथा भाषा को रोचक बनायें और नए
साहित्यिक प्रयोगों की अवहेलना न करें तो
हिंदी भाषा स्वयं उन्नत हो जायेगी।
बहुत दुःख होता है जब वरिष्ठ साहित्यकारों
की वैचारिक कटुता समारोहों में, सोशल
मीडिया पर प्रायः देखने-पढ़ने को मिलती है।
साहित्यकार कभी विष वमन् नहीं करता
किन्तु इन-दिनों ऐसी घटनाएं मंचों पर
सामान्य सी बात लगती हैं।
कुछ कवि जिन्हें वैश्विक मंच मिला है, जिन्हें
दुनिया सुनती है, जिन्होंने साहित्य का
सरलीकरण किया उनकी आलोचना करना
आलोचना कम ईर्ष्या अधिक लगती है।
किसी का लोकप्रिय होना उसकी
मृदुभाषिता,सहजता,व्यवहारिकता तथा
प्रयत्नों की नवीनता पर निर्भर करता
है....यदि आपको पीछे रह जाने का आमर्ष हो
तो मंथन कीजिये, अपने शैली पर ध्यान
दीजिये..कोई परिपूर्ण तो होता नहीं है,
सुधार सब में संभव है...आप अच्छा लिखेंगे.सुनायें
गे तो लोग आपको भी पढ़ेंगे,सुनेंगे।
भला कौन सा ऐसा व्यक्ति होगा जिसे
अच्छा साहित्य अच्छा न लगे।
कुछ साहित्यकार ऐसे भी हैं जिनके मनोवृत्ति
को माँ शारदा भी नहीं बदल पाईं भले ही वे
माँ के सच्चे साधक रहे हों।
कुछ समय पहले एक वरिष्ठ साहित्यकार का
सन्देश आया फेसबुक पर। वो सन्देश कम अध्यादेश
अधिक था मेरे लिए। सन्देश का सार ये था कि
उन्होंने मेरे ब्लॉग पर मेरी कविताएँ पढ़ीं,
आलेख पढ़े। पाठकों की, ब्लॉगर मित्रों की
टिप्पणियां भी पढ़ीं..और उसके बाद खिन्न
होकर मुझे सन्देश भेजा कि- मैं आज की पीढ़ी
को पढ़कर व्यथित हूँ। तुम्हीं लोग हिंदी
साहित्य को गन्दा कर रहे हो। उन्मुक्त
कविता लिखते हो। छंदों का ज्ञान नहीं
है..लयात्मक नहीं लिखते तुकबंदी करके स्वयं को
कवि कहते हो।कोई हिंदी प्रेमी कुछ पढ़ने के
लिए इंटरनेट खोले तो तुम्हारी तरह अनेक
साहित्य के शत्रु दिख जाते हैं।न शैली है न
रोचकता है कुछ भी लिखने लगते हो जो मन में
आये उसे पोस्ट कर देते हो चाहे उसका स्तर
कितना भी निम्न क्यों न हो। तुम छुटभैय्ये
ब्लॉगरों ने हिंदी को बदनाम कर के रख
दिया है।
मैंने भी प्रत्युत्तर दिया- गुरुदेव प्रणाम! क्षमा
चाहता हूँ आप मेरी रचनाओं से व्यथित हुए।
आपने जिन विषयों की ओर इंगित किया है मैं
उनमें सुधार लाने का प्रयत्न करूँगा किन्तु मेरी
एक समस्या है गुरुदेव कि मैं विधि विद्यार्थी
भी हूँ। कानून तो स्वयं पढ़ सकता हूँ पर मेरे
प्रवक्ता गण मुझे साहित्य नहीं पढ़ाते। कुछ
ऐसी विडम्बना है इस देश कि सर्वोच्च
न्यायालयों की भाषा आंग्ल भाषा है। प्रश्न
आजीविका का है इसलिए इसलिए इस विषय
को भी मैंने अंग्रेजी में ही पढ़ा है। हिंदी मुझसे
छूट सी गयी है।मुझे कोई हिंदी आचार्य मिल
नहीं रहा है जो मुझे व्याकरण सिखाये। आप
जैसे वरिष्ठ लोगों से पूछता हूँ तो कहते हैं कि
स्वयं अध्यन करो। केवल पुस्तक पढ़ने से ज्ञान आ
जाता तो अब तक संभवतः हर कुल में एक महर्षि
वाल्मीकि होते।आपने कहा की मेरे जैसे अधम
लोग साहित्य को दूषित कर रहे हैं..गुरुदेव
दूषित वस्तुओं को स्वच्छ करने का कर्तव्य भी
आप जैसे जागरूक लोगों पर होता है। मुझे भी
स्वच्छ कर दीजिये जिससे कि मैं भी स्वच्छता
फैला सकूँ। आपका बहुत-बहुत आभार मुझ पर इस
विशेष स्नेह के लिए।
गुरुदेव ने कोई उत्तर नहीं दिया किंतु मुझे
ब्लॉक अवश्य कर दिया।
यह कारण मेरे समझ में नहीं आया। मैंने कौन सी
उदण्डता कर दी? मैंने उन्हें कैसे आहत कर दिया?
कुछ दिन ये सोचता रहा कि क्या मैं अपनी
काव्यगत उच्छश्रृंखलता से कहीं सच में साहित्य
को दूषित तो नहीं कर रहा? क्या छन्दमुक्त
कविता, कविता की श्रेणी में नहीं आती.?
इन्ही प्रश्नों में उलझ कर कई दिन कुछ नहीं
लिखा। एक दिन शाम को कुछ पढ़ रहा था
तो अचानक ही रामायण का एक प्रसंग याद
आया। सीता माता का पता चल चुका था।
वानर सेना समुद्र में सेतु निर्माण के लिए लिए
प्रयत्नशील थी। कोई पहाड़ तो कोई पर्वत
तो कोई पत्थर फेंक रहा था समुद्र में, तभी
भगवान की दृष्टि एक नन्ही सी गिलहरी पर
पड़ती है जो स्थल पर लेटकर अपने सामर्थ्य भर
शरीर में रेत इकट्ठा करती और समुद्र के किनारे
उसी रेत को गिरा देती। उसका समर्पण देख
भगवान उसे प्यार से सहलाते हैं आशीष देते हैं और
देखते ही देखते बांध बन जाता है। त्रेता युग में
निर्मित वह सेतु आज भी यथावत है।
मुझे एक क्षण को आभास हुआ कि मैं वही
गिलहरी हूँ जो साहित्य के सागर में सेतु बना
रहा हूँ। निःसंदेह मेरा प्रयत्न अकिंचन है किन्तु
है तो।मैं तो अपने आराध्य की उपासना कर
रहा हूँ। मैं लिखना क्यों बंद करूं?
मुझे उनकी टिप्पणी अप्रिय नहीं लगी थी
किन्तु अपने कार्य पर संदेह होने लगा था।
ये केवल मेरी समस्या नहीं है। मेरे जैसे अनेक हैं
जो लिखते है टूटी-फूटी भाषा में...जिन्हें
सीखने की तीव्र इच्छा तो है पर सिखाने
वाले हाथ खड़ा कर लेते हैं। जो जानते हैं
जिनकी कलम पुष्ट है वे ही लोग बच्चों को कुछ
सिखाने से कतराते हैं। कोई स्वयं ही नहीं
सीख सकता न ही इस युग में आदि कवि
वाल्मीकि जैसा कोई बन सकता है।
गुरु को भारतीय दर्शन नें ईश्वर से श्रेष्ठ कहा
है..आप गुरुवत् आचरण करने लगें तो आप सबका
शिष्य बनने में नई पीढ़ी कब से आतुर है।
एक अनुरोध है साहित्य में पुरोधाओं से यदि
आप कुछ जानते हैं तो आपका सुझाव, आपका
मार्गदर्शन, आपका अनुभव हमारा संबल बन
सकता है...हमें सुधार सकता है।
आपके द्वारा प्रदत्त सकारात्मक वातावरण न
केवल हमारी लिपि,हमारी भाषा को
उन्नतिशील बनाएगा वरन हमारी संस्कृति
को सशक्त बनाएगा..क्योंकि लोग कहते हैं कि
हम बच्चे ही भारत के भविष्य हैं...इस भविष्य
को संवारने में आपका योगदान इस द्वीप के
लिए सदैव अविस्मरणीय रहेगा।
आपकी आपसी कटुता हमें भी आहत करती है।
साहित्य कला है, कला अर्थात आनंद...और
आनंद सदैव शाश्वत होता है।जब तक साहित्य
शाश्वत है तभी तक पठनीय है जब मन का
ईर्ष्या,द्वेष, दुर्भावना साहित्य में आने लगता
है तो साहित्य बोझिल लगने लगता है..कोई
दुःख नहीं पढ़ना चाहता कोई विषाद नहीं
सुनना चाहता...सब को उल्लास अभीष्ठ
है..प्रयोग करके तो देखिये...दुनिया सुनने के
लिए सदैव उत्सुक रहेगी।एक ऊर्जावान व्यक्ति
सदैव ऊर्जा बिखेरता है..आपके आस-पास आपसे
प्रभावित बिना हुए नहीं रह सकते..सरस्वती के
साधक अवसाद में रहें तो युग अंधकारमय हो
जाता है फिर भाषा की उन्नति तो स्वप्न
जैसा है...देश की ही अवनति प्रारम्भ हो
जाती है।
समदर्शक बनें..सहनशील बनें...गंभीर
बनें..निःसंदेह भाषा भी गौरवान्वित होगी
और देश भी...भविष्य आपकी प्रतिबद्धता पर
टिका है, आपके समर्पण पर टिका है....
सकारात्मकता की ओर बढ़ें.....लक्ष्य तक तो
पहुँच ही जाएंगे शनैः-शनैः।

बुधवार, 9 सितंबर 2015

धार्मिक असहिष्णुता से आहत भारत


प्राचीन भारतीय दर्शन के अनुसार धर्म की एक बहुत सुन्दर सी परिभाषा है-"जो धारण करने योग्य है वही धर्म है।"
प्रश्न यह उठता है कि धर्म के लक्षण क्या हैं? इन लक्षणों को मनु ने इस प्रकार  है बताया है-
"धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं
शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं
धर्मलक्षणम्।
अर्थात- धैर्य, क्षमा, दम(दुष्प्रवित्तियों पर नियंत्रण), अस्तेय, आंतरिक तथा बाह्य शुचिता, इन्द्रिय निग्रहः, बुद्धिमत्ता पूर्ण आचरण, विद्या के लिए तीव्र पिपसा, मन,कर्म तथा वचन से सत्य का पालन करना, क्रोध पर नियंत्रण ये धर्म के दस लक्षण हैं।
आज संसार के किसी भी धर्म में इन लक्षणों का दूर-दूर तक कहीं समावेश नहीं है। भारत जिसे धर्मों का संगम कहा जाता है, जहाँ सदियों से अलग-अलग धार्मिक संस्कृतियां पुष्पित और पल्लवित होती रही हैं, जिस देश ने विश्व के सभी धर्मों के अनुयायियों को संरक्षण प्रदान किया उसी भारत में आज धार्मिक कलह से भारतीयता आहत है।
हर धर्म के अनुयायी उस धर्म की मूल भावना से परे हटकर कुरूतियों को धर्म कहकर देश में धार्मिक कटुता का बीज बो रहे हैं। अब देश में भारतीय खोजना मुश्किल हो गया है। हिन्दू और मुसलमान तो गली-चौराहों पर मिल जाते हैं पर भारतीय विलुप्तप्राय हो गए हैं। सरकार को भारतियों के संरक्षण के लिए कोई बिल पास करना चाहिए ये संकटग्रस्त प्रजाति है।
देश में अलग-अलग जगहों पर पाकिस्तान और इस्लामिक स्टेट के झण्डे फहराये जा रहे हैं, हिंदुस्तान मुर्दाबाद और पाकिस्तान ज़िंदाबाद के नारे लगाये जा रहे हैं। जिस देश में खाने के लिए लाले पड़ रहे हों जो खुद दहशत के आग में जल रहा हो उसके अनुयायी भारत में कहाँ से आये ये सोचने वाली बात है। ऐसी कौन सी बात है जिससे आहत हो लोग वतन से गद्दारी कर रहे हैं? कुछ समझ में नहीं आ रहा है। हिन्दू और मुसलमान में नफ़रत इस कदर बढ़ गयी है कि जगह-जगह से सांप्रदायिक तनाव की ख़बरें आ रही हैं। ऐसी धार्मिक असहिष्णुता कभी नहीं थी जिनती अब हो गयी है। ऐसी विषाक्त परिस्थितियों को देखकर देश की आत्मा व्यथित है।
कोई धर्म देश से गद्दारी नहीं सिखाता। किसी भी धर्म की शिक्षाएं मानवता को शर्मसार नहीं करती पर धर्म के ठेकेदारों को कौन समझाए?  आज धार्मिक उन्माद का मुख्य कारण धार्मिक राजनीति है। नफरत उगाई जा रही है और दहशत की फसलें काटी जा रही हैं।
हर धर्म में एक से बढ़कर एक संप्रादियिक तनाव पैदा करने वाले चेहरे हैं जो केवल ज़हर ही उगलते हैं।
धर्म की राजनीति करने वाले इन असहिष्णु लोगों को ये नहीं पता है कि धर्म का उद्देश्य क्या है।
"श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चैव
अनुवर्त्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न
समाचरेत् ॥"
धर्म का सर्वस्व क्या है? उसे समझो और वैसा आचरण करो। जो आचरण तुम्हारे लिए प्रतिकूल हो उसे दूसरों के साथ मत करो।
धर्म का आशय क्या है? धर्म क्या है? आचरण क्या है? पाप क्या है? कुछ नहीं पता पर सब स्वयं को धार्मिक कहते हैं।
जो व्यवहार अपने अनुकूल न हो वैसा आचरण किसी दुसरे के साथ नहीं करना चाहिए। यदि ऐसा करना प्रवित्ति है तो यह पाप है।
किसी भी धर्म का उत्थान हिंसा से असंभव है। जो धर्म सबसे अधिक उदार होगा,समरसता पूर्ण होगा और मानवीय होगा वही अस्तित्व में रहेगा। किन्तु कोई भी इस तथ्य को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है।
जब धर्म राष्ट्र भक्ति में बाधक बने तो उसे त्याग देना चाहिए। क्योंकि जो व्यक्ति अपने मातृभूमि से गद्दारी कर सकता है वह किसी भी धर्म या संस्कृति का पोषक नहीं हो सकता है।
आज पूरे विश्व में आगे बढ़ने की होड़ मची है। कोई मंगल पर तो कोई प्लूटो पर जाने की तैयारी कर रहा है पर एशिया धर्म संरक्षण में कट-मर रहा है। ऐसे धर्म की प्रासंगिकता क्या है जिसमें मानवता लेश मात्र भी न बची हो?
सनातन धर्म की एक प्रचलित सूक्ति है-
"हिंसायाम् दूरते यस्य सः सनातनः।"
आर्थात मन से,वचन से और कर्म से जो हिंसा से दूर है वही सनातन है। जो कर्म प्राणी मात्र को कष्ट दे वह हिंसा है। जो हिंसक है वह सनातनी नहीं है...मानव भी नहीं है। यह कथन सभी धर्मीं के अनुयायियों को समझना चाहिए।
क्या जो लोग ऐसे धार्मिक उन्माद पैदा करते हैं जिससे देश में आतंरिक कलह पैदा होता है उन्हें धार्मिक कहा जा सकता है? ये सत्ता लोलुप लोग हैं किसी भी धर्म से इनका कोई मतलब नहीं है।
न ये हिन्दू हैं न मुसलमान हैं कोई और ही धर्म है इनका। शैतान इन्हें ही कहते हैं शायद।
कुछ मुसलमान इस देश की सरकार से असंतुष्ट लोग पाकिस्तान के बरगलाने की वजह से वतन से ग़द्दारी कर पूरे इस्लाम को कठघरे में खड़ा करते हैं। पाकिस्तान ज़िंदाबाद के नारे लगाने वाले लोग, देश से ग़द्दारी करने वाले लोग न तो मुसलमान हैं न हिंदुस्तानी।
गद्दारों की कोई कौम नहीं होती है। इस देश को धर्मों में बाँटने वाले लोग ये क्यों भूल जाते हैं जब कलाम साहब विदा लेते हैं वतन से तो पूरा देश रोता है। जब क़साब को,अफज़ल गुरु को और याक़ूब को फाँसी होती है तो देश में लड्डू बंटता है।
कोई भी इंसान वतन से ग़द्दारी करके महान नहीं बनता काफ़िर जरूर बन जाता है। ऐसी हरकतों से न ईश्वर खुश हो सकते हैं न ख़ुदा।
भारतीय दर्शन राष्ट्ररक्षा को ही धर्म मानता है। मंदिरों में कोई भी यज्ञ,हवन की पूर्णाहुति तब तक नहीं होती जब तक "भारत माता की जय" नहीं बोला जाता। देशभक्ति संसार के सभी धर्मों से श्रेष्ठ है। धर्म द्वितीयक हो तथा राष्ट्र प्राथमिक तो समझिये आप ईश्वर के सच्चे उपासक हैं।
आप हिन्दू, मुसलमान या इसाई हों पर  भारतीय होना न भूलें। देश से वफ़ादारी करने वालों पर हर मज़हब के खुद को फ़ख़्र होता है।आइये आप और हम मिलकर देश को मज़बूत बनायें,प्रगतिशील बनायें..विकसित बनायें। हम हिंदुस्तानी हैं। विश्व बंधुत्व का पाठ हम दुनिया को पढ़ाते हैं यदि हम सांप्रदायिक दंगे करेंगे, धार्मिक उन्मादी बनेंगे तो हमारे देश की साझा संस्कृति को कितना ठेस पहुंचेगा।इक़बाल साहब ने बहुत सही बात कही है-
मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना,
हिंदी हैं हम वतन है हिन्दोस्ताँ
हमारा।।
हम सब एक हैं। एक ही माँ के बेटे हैं। क्या हुआ हमारे पूजा की पद्धतियाँ अलग हैं...हमारा देश तो एक है..हमारी माँ तो एक है।
संसार की प्राचीनतम् सभ्यता जब बर्बरता का ताण्डव देखेगी तो क्या उसका ह्रदय नहीं फटेगा?
आओ इस महान संस्कृति को क्षत्-विक्षत् होने से रोकें। इस देश की आत्मा को व्यथित न होने दें...आओ "वसुधैव-कुटुम्बकम्" की भावना को विकसित करें..हम सब मिलकर रहें...अपने राष्ट्र को एक आदर्श राष्ट्र बनायें जिससे पूरी दुनिया बोल पड़े-
"सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्ताँ तुम्हारा।"
जय हिन्द! वन्दे मातरम्।
-अभिषेक शुक्ल।