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शुक्रवार, 17 अक्टूबर 2014

निष्पक्ष मीडिया की अनिवार्यता

एक लोकतान्त्रिक देश में लोकतंत्र के चार मुख्य  स्तम्भ कहे गए हैं, जो क्रमशः हैं- कार्यपालिका, न्यायपालिका(सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट,जिला अदालतें ), विधायिका तथा "मीडिया.'' यदि लोकतंत्र की चारो शक्तियां एक ही राग अलापने लगें तो राष्ट्र उन्नति  नहीं कर सकता, इसीलिए "शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धान्त'' को राज्य की व्यवस्था को सुचारू रूप से चलने के लिए तथा शक्तियों के परस्पर समन्वयन के लिए प्रायः व्याख्यायित किया जाता है. इस सिद्धांत के अनुसार राज्य की तीनो शक्तियों को अलग-अलग तथा सामान स्वतंत्रता प्रदान की जाती हैं जिससे कि यदि शासक भी निरंकुश होना  चाहे तो उस पर लगाम कसा जा सके. दुर्भाग्य से भारत में भारत की तीन स्तम्भ तो सत्तारूढ़ पार्टी के पक्ष में पहले से हैं और चौथा स्तम्भ सरकार के गुणगान में व्यस्त है, सरकार क्या कहें केवल और केवल प्रधानमंत्री "नरेंद्र दामोदर दस मोदी'' जी के गुणगान में व्यस्त है.
व्यक्तिवादी मीडिया का होना गणतंत्र के हित में नहीं होता है, एक कुशल शासक को अपने गुणगान सुन कर निरंकुश होने में देर नहीं लगती, मीडिया का काम सरकार की नीतियों पे खुल कर बहस करने का है, क्या गलत है क्या सही है इस पर मंथन करने का काम है न कि प्रधान मंत्री के गुणगान का,  पर आज-कल तो मोदी-मोदी के अलावा कुछ और सुनाई नहीं देता. निःसंदेह मोदी जी एक आदर्श प्रधान मंत्री हैं, विदेशी नीतियों में  उनकी परिपक्वता जनता भली भांति समझ रही है पर परिणाम आने शेष  हैं. जिस तरह पूरी दुनिया में मोदी को दूसरा ओबामा(सिर्फ ओबामा ही नहीं अमेरिका का कोई भी राष्ट्राध्यक्ष दुनिया का सबसे बड़ा डॉन होता  है) बनाकर पेश किया जाता है वह कहीं न कहीं हास्यपद लगता है.किसी भी क्षेत्र में हम चाइना या अमेरिका से आगे नहीं हैं और न ही इन राष्ट्रों  की कोई मज़बूरी है भारत के सामने झुकने की पर मीडिया में हंगामा कुछ इस तरह का है कि पूरी दुनिया शरणागत है भारतीय प्रधान मंत्री के आगे. दुसरे ग्रह से कुछ विध्वंसकारी शक्तियां आ गयी हैं और हमारे प्रधानमंत्री जी सुपर हीरो हैं बस धरती को विनाशकारी शक्तियों से ये ही बचा सकते हैं.
चाटूत्कारिता के लिए पहले राजा-महाराजा लोग दरबारी कवि रखते थे, रखें भी भला क्यों न भारत का विनाश जो करना था पर आज मामला उल्टा है. दरबारी कवि का काम मीडिया कर रही है. सिर्फ मीडिया ही नहीं इंटरनेट, ब्लॉग. फेसबुक, ट्विटर के महारथियों ने अकेले जिम्मेदारी उठाई है मोदी जी के यशगान  की वो भी बिलकुल मुफ्त, धन्य हो भारतीय वीरों.
साहित्यकारों को क्या कहा जाए उनका तो धर्म ही है, "जिसका खाना-उसका गाना''. निस्पक्ष पत्रकारिता की कमी खलती है. ऐसे पत्रकार हाशिये पर क्यों हैं जिनकी कलम सच्चाई की जुबान बोलती है. कोई युग द्रष्टा पत्रकार या साहित्यकार मिलता क्यों नहीं, कलम वही है जो यथार्थ लिखे, किसी की प्रशंसा करे तो अनुशंसा भी करे. किसी  की कमियां देखकर आँख मूँद लेना तो पक्षपात है न?  या होण लगी है एक ही राग अलापने की "हर-हर मोदी,घर-घर मोदी की.
भारत जैसे लोकतान्त्रिक देश में देश की प्रगति और विकास के लिए राज्य के सभी स्तम्भों का समन्वयन जरूरी है, ईमानदारी जरूरी है. यदि ईमानदारी नहीं तो विकास नहीं. सरकार की उपलब्धियों की प्रशंसा  न करके यदि  मीडिया सरकार का ध्यान उन क्षेत्रों की तरफ ले जाए जहाँ आज भी गरीबी-भुखमरी और लाचारी है तो कितना बेहतर होगा.
शहरों में झुग्गी-झोपडी वालों की सरकार को सुधि नहीं हैं और देश में काशी को टोकियो और रेलवे लाइन पर बुलेट ट्रेन चलाने की बात हो रही है.एक बात समझ से पर है कि बुलेट ट्रेन में सफर कौन करेगा? किसी तरह माध्यम वर्ग के कुछ लोग या धनाढ्य व्यक्ति जो टिकट खरीदने की औकात रखते हैं. निम्नवर्ग का क्या? ये सुविधाएँ तो धर्मशास्त्रों में वर्णित कल्पित स्वर्ग की तरह हैं जहाँ जाने मरने के बाद ही होता है. किस्मत को कोसें, सरकार को या अपने पूर्वजों को जिनकी वजह से आज भी गरीबी से उबार नहीं पा रहे. गरीब, गरीब क्यों है? कहीं न कहीं वजह ये भी है की उसे अमीर होने का मौका  ही नहीं मिला. एक गरीब अपना पेट भर ले वही बहुत है मुंगेरी लाल के हसीन सपने देखने की उसकी औकात कहाँ? या तो सरकार अंधी है या निचले तबके को देश का हिस्सा नहीं मानती. वोट लेने का काम बस नेताओं का है पर इनके उत्थान के लिए किसी को फुर्सत नहीं है. हो भी भला क्यों न गरीबी की कुछ तो सजा भुगतनी पड़ती है.
एक निवेदन आप सबसे है कि निष्पक्ष लिखें, मीडिया से अनुरोध है की आप बेशक सरकार की उपलब्धियों को जनता तक पहुचाएं पर जनता को ना भूल जाएँ. एक तबका आज भी है जो न हिन्दू है न मुसलमान है, न सिख है और न ईसाई है वो बस गरीब है, हाँ यही उसकी एक मात्र जाति है. १९४७ से लेकर अब तक देश ने लम्बा सफर तै किया है पर इस सफर में हमारे कुछ साथी  बहुत पीछे छूट गए हैं, उन्हें समाज की मुख्य धारा में लेन की कोशिश तो कीजिये. आजादी तो सबके लिए है न? सुभाष चन्द्र बोस, भगत सिंह, चन्द्र शेखर आजाद, महात्मा गांधी और न जाने कितने अनगिनत नाम जिन्होंने अपना सब कुछ इस देश के लिए कुर्बान किया, भारतीयता के लिए लड़े उनके स्वप्न में आज का गरीब भारत तो नहीं था न ? उनके शहादत को बेकार जाने न दिया जाए तो बेहतर होगा अन्यथा कृतघ्नता का बोझ हमे जीने नहीं देगा.
दीपावली आ रही है,आइये मिलकर प्रयत्न करते हैं अँधेरा मिटने का....आइये बढ़ाते हैं एक कदम हमारे सपनों के भारत की ओर..फिर से दुहराते हैं "सर्वे भवन्तु सुखिनः का राग....भारतीयता का राग!!!

शुक्रवार, 3 अक्टूबर 2014

आज का रावण



विजय दशमी; पाप पर पुण्य की विजय गाथा जिसे भारतीय सदियों से मनाते चले रहें हैं हर साल बुराई के सबसे बड़े प्रतीक की प्रतिमा जलाई जाती है पर वह प्रतीक अमर है. कभी मरता ही  नहीं जैसे अजन्मा हो. हर साल रावण दहन होता है पर कलियुग में शायद रावण की प्रवित्ति बदल गयी है अथवा उसने स्वर्ग में जाकर रक्तबीज से संधि कर ली है कि जितने  व्यापक स्तर पर रावण का वध होता है उतने ही रावण उसे जलता देख तैयार होते हैं, रक्तबीज का तो रक्त धरती पर गिरता था तब नया रक्तबीज पैदा होता था पर कलियुग में तो मामला उल्टा है. यहाँ देखने मात्र से रावण जन्म लेते हैं. रावण भले ही विदेशी हो पर उसके अनुयायी शत -प्रतिशत स्वदेशी हैं. लंका में तो भारत से कम नारी उत्पीड़न के मामले सुनने को मिलते हैं मतलब साफ़  है कि वहां वाले रामभक्त बन गए हैं और भारतीय रावण. अगर आज के रावण की तुलना कल के रावण से की जाए तो आज वाले रावण में त्रेता युग के रावण से कहीं अधिक राक्षसता दिखती है. रावण के दस सर थे तब तो उसने एक सीता को हरा पर आज का रावण तो बस एक सर का है पर जाने कितनी सीताओं की अस्मिता हरी जाती है.तब एक रावण था और एक राम थे पर आज रावण ही रावण हैं और राम कहीं दिखते भी नहीं. आज का रावण इतना शक्तिशाली है की राम उसके भय से किसी अज्ञात  पर्वत पर किसी सुग्रीव की गुफा में शरणार्थी हैं.
     रामायण, रामचरित मानस दोनों ग्रंथों में कहीं भी रावण की अशुचिता नहीं दिखती, रावण का व्यभिचार भी कहीं नहीं दिखता, रावण वंचक तो अवश्य था पर बलात्कारी नहीं. आज के रावण में ये भी खूबी है. अभद्रता तो जन्मजात गुण है बाकी जो बचता है वह उपार्जित है. अब तो समाज के इन कलंकों की तुलना लंकाधिपति रावण से करने में भय लगता है कहीं रावण बुरा मान जाए कि; "मेरी तुलना इन पापियों से की जा रही है जबकि मैं इनसे बहुत पवित्र हूँ.'' आजकल राम, हनुमान,सुग्रीव, अंगद या जामवंत जन्मे या जन्मे पर रावण और  विभीषण हर घर में पैदा हो रहे हैं, पर रावण का पडला भरी देख उसी से चिपके रहते हैं. घर बनते हैं, परिवार टूटते हैं, छोटा भाई बड़े भाई को रावण कहता है पर राम  के काम नहीं आता. निःसंदेह यही तथ्य है जिसकी वजह से कोई अपने संतान का नाम विभीषण नहीं रखता.
      हनुमान जी को अमर कह जाता है.रामचरित मानस में अवधी में बड़ी सुन्दर चौपाई है जब अशोक वाटिका में माँ  सीता हनुमान जी से प्रभु श्री राम का कुशल-क्षेम पूछती हैं, और सब जानने के बाद हनुमान जी को वरदान देती हैं-
"अजर, अमर, गुणनिधि, सुत होहु' करहु बहुत रघुनायक छोहू''.
वरदान माँ सीता का है तो निष्फल होने का औचित्य  ही  नहीं है. राम भगवान भले ही महाप्रयाण कर चुके हों पर हनुमान जी तो धरती पर हैं फिर क्यों नहीं किसी सीता की अस्मिता बचाने आते हैं? क्या बस भगवान श्री राम के जीवन तक ही उनका शौर्य था? क्या महाबली भी अब शक्तिहीन हैं या समाज में राक्षसों के कृत्यों को  मूक दर्शक बन देखते रहना चाहते हैं? अथवा कलियुगी मानव कापियों से यह कहना चाहते हैं कि "उठो, अब तो अन्याय के विरूद्ध लड़ो, कब तक राम की प्रतीक्षा में कायर बने रहोगे, तब तो लंका की दिशा अनभिज्ञ थी पर अब तो गली -गली में लंका है, संगठित हो और विध्वंश कर दो रावण सहित लंका का.''
  हर शहर में जाने कितनी महिलाएं, युवतियां और जाने कितनी छोटी, मासूम बच्चियों को जबरन वेश्यालयों में बिठाया जाता है, धकेला जाता है उन्हें हवस के पुजारियों के आगे, चीखती हैं, पिसती हैं समाज के दरिंदों के हाथों में, पर कुछ दिन बाद वो शून्य हो जाती हैं.जिन्दा तो होती हैं पर एक अभिशाप की तरह. भले ही भारत में भारतीय दंड संहिता के धरा ३७२ और ३७३ में  वेश्यालय संचालकों  को और दलालों   को पकडे जाने पर "दस वर्ष के सश्रम कारावास की सजा'' हो पर हाथ कोई नहीं आता. पुलिस को मोटी-तगड़ी रकम मिलती है फिर कौन बोलने जाए. दुनिया की सबसे निकम्मी कौम भारतीय  पुलिस ही है. जिसके बारे में अक्सर देखने और सुनने को मिल जाता है.इन लंकाओं में फसी हुई लड़कियों के उद्धार के लिए कोई राम या हनुमान नहीं आते क्योंकि ये लड़कियां किसी राजा की पत्नी, बेटी या बहन नहीं होती, जनता को मतलब नहीं होता और प्रशासन दुःशासन का भाई है वह ऐसे काम क्यों करे उसे तो बस धन चाहिए.
  यदि आज कोई राम नहीं बन सकता, हनुमान के पदचिन्हों पर चल नहीं सकता तो बंद करो ये तमाशा. मत जलाओ रावण को, अगर रावण को राक्षस कहते हो तो उससे करोड़ गुनी राक्षसता तो तुम ढोते हो, फिर खुद को क्यों नहीं जलाते? रावण ने जो किया उसकी सजा उसे त्रेता युग में ही मिल गयी थी पर आप जो करते हो उसके बारे में कभी सोचा है?