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शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

हाय रे टोपी!

दुनिया में अकेला भारत ऐसा राष्ट्र है जहाँ टोपी की राजनीति होती है. चुनाव भर तो इसकी धूम मची रहती  है.आम आदमी की टोपी, ख़ास आदमी की टोपी और न जाने किस -किस आदमी की टोपी. जैसी हवा बही नेताओं  ने वैसी टोपी पहन ली.आम तौर पर हमेशा टोपी का रंग सफ़ेद होता था पर जब से मुलायम सिंह जी का राज आया  टोपी की परिभाषा बदल गयी. पहले लोगों के कच्छे लाल हुआ करते थे अब टोपी भी लाल होने लगी. भाई टोपी दूर  से दिखनी चाहिए क्योंकि सारा खेल टोपी का है. सफ़ेद टोपी पे धुल जम जाती है सो धूल -गर्दे से बचने के लिए रंगीन टोपी जरूरी है, अब करम भले ही काले हो पर टोपी लाल होनी  चाहिए.

यूँ तो लाल रंग खतरे का प्रतीक होता है पर इन दिनों उत्तर प्रदेश में समाजवाद का प्रतीक है. अगर कोई ट्रेन गलत रुट पे चली जाए और कोई जानकार आदमी उसे लाल कपडा दिखाए और आगे आने वाले खतरे से आगाह करना चाहे तो तो ड्राइवर गाडी नहीं रोकेगा बल्कि और स्पीड बढ़ा देगा क्योंकि उसे अंदेशा हो सकता है कि ये जरूर कोई समाजवादी है, वोट मांगना चाह रहा है यात्रियों से. इतनी बड़ी संख्या में लोग कहीं इकट्ठा मिलने से रहे तो चलो ट्रेन में ही दाँव  मार लेते हैं क्या पता कोई मुर्गा फंस जाए.
    देश में जब भी वीरता का ज़िक्र हो तो उत्तर प्रदेश वालों  का नाम जरूर लेना चाहिए क्योंकि ये ये खतरे के निशान को देखकर भी नहीं डरते और लाल टोपी वाले की सरकार बना देते है वो भी बहुमत से.खैर उत्तर प्रदेश में तो नीली टोपी भी चलती है पर दुर्भाग्यवश इन दिनों ट्रेंड से बाहर है.
बात टोपी की हो और आम आदमी पार्टी की बात न हो तो सारा मज़ा किरकिरा हो जाएगा. अरविन्द केजरीवाल की टोपी ने तो दिल्ली में तहलका मचा दिया. साल भर के अंदर एक आम आदमी ने पूरी सरकार हिला के रख दिया. संसद में मनमोहन सिंह और दश-जनपथ में सोनिया और राहुल गांधी जी की रातों की नींद हराम हो गयी.मनमोहन जी तो सदा के लिए मौन ही हो गए. ये आम आदमी की टोपी का ही करिश्मा था. आम आदमी पार्टी की एक ख़ास बात है की पार्टी वाले भले ही कच्छे में हों पर टोपी उनके सर पर जरूर रहेगी जैसे टोपी पहनना ही उनके जीवन का ध्येय हो.तेज़ हवा या आँधी में यदि उनकी टोपी उड़ जाए तो दिल्ली की सड़कों पर ''बिन टोपी सब  सून'' गाना गाते हुए पार्टी के एक दो सदस्य मिल जायेंगे आपको. केजरीवाल जी को टोपी कितनी प्यारी है ये तो पूरा  भारत जानता है. सर्दी में कभी-कभी जोर की  हवा चल पड़ती है तो टोपी उड़ने का खतरा होता है इसलिए केजरीवाल जी ने टोपी को कसकर मफलर से बंधा. भाई ''प्राण जाए पर टोपी न जाए''. देखो टोपी का दम और सच्चाई की ताकत मोदी की हवा होते हुए भी कूद पड़े वाराणसी में उनके खिलाफ. अरविन्द जी की टोपी नहीं सुदर्शन चक्र है जो भ्रष्टाचारियों की पहचान कर उन्हें सन्मार्ग पर लाती है. जय हो आम आदमी के टोपी की.
       अन्ना की टोपी में भी दम था. रामलीला मैदान में उमड़ी भीड़ ने साबित कर दिया की सच्चाई की राह पर चलो तो आज भी आपके साथ लाखों लोग खड़े हो सकते हैं. अन्ना की टोपी गांधीवादी टोपी है, इस टोपी के मूल स्वरुप में कोई परिवर्तन नहीं हुआ. इतने बड़े जन समर्थन  के बावजूद भी टोपी जस की तस बनी रही. अन्ना हज़ारे जी  यदि राजनीति में आते तो मोदी जी की हवा कभी नहीं बन  पाती.भले ही मोदी जी के समर्थक उन्हें रजनीकांत मानते हों पर अन्ना की टोपी के आगे ये दो दिन भी नहीं टिक पाते. अन्ना के आंदोलन में अरविन्द जी जिस कोने में बैठे थे वहां गंदगी सबसे ज्यादा थी इसलिए टोपी पर धूल जम गयी और अरविन्द जी को अन्ना का साथ मज़बूरी में छोड़ना पड़ा, सफाई जो करनी थी. अब सफाई का स्थायी चिन्ह झाडू उनके टोपी की शोभा बढ़ा रही है.अब भला गंदगी की हिमाकत कहाँ जो वो टोपी पे टिक पाये झाड़ू के रहते हुए.
                                क्या कहूँ? सवाल टोपी का नहीं नहीं है सवाल जनता के विश्वास का है. कभी संप्रदाय की आड़ में कभी वोट बैंक की राजनीति के लिए टोपी पहनी जाती है. नेताओं  की इन ओछी हरकतों को देखकर भी जनता की आँख नहीं खुलती. कैसा ये लोकतंत्र है?  हमारे प्रतिनिधि पहले टोपी पहनते हैं फिर टोपी फिरातें हैं और हम मूक दर्शक बन खड़े रहते हैं. किसी भी राजनीतिक पार्टी का कल्याण बिना टोपी पहने नहीं होता. हमें परेशानी टोपी से नहीं छल से हैं. क्यों पैदा करते हैं जनता में धार्मिक उन्माद चन्द वोटों के लिए? क्या जनता इतनी बेवकूफ़ है की इसे लिबास पहन कर बेवकूफ़ बनाया  जा सके?
साम्प्रदायिकता कहाँ दिखती है? किस जगह? सिर्फ नेताओं का पैदा किया हुआ  कीड़ा है धार्मिक उन्माद. अफ़सोस की बात ये है कि  हम इन्हे सुनते हैं, और इनके टोपी फिराने पर मूक दर्शक बने रहते हैं, अगर हम बोलने लगे तो शायद कोई फिर हमे टोपी न फिरा पाये.